जमशेदपुर,मिथिला मिरर-शिव कुमार झा ‘टिल्लू’: साम्यवाद मात्र कोनो राजनैतिक चेतना नहि, अतिक्रमणवादी व्यवस्थाक विरूद्ध एकटा समाजवादी विचारधारा थिक। मैथिली साहित्यक संग ई बड़ पैघ विडम्वना रहल जे वचनसँ तँ बहुत रास रचनाकार अपनाकेँ साम्यवादी मानैत छथि मुदा जखन कर्मक बेर अबैत छन्हि तँ कतौ कोनो सार्थकता नहि. इतिहास साक्षी अछि कोनो भाषा साहित्यक विकास ओकर विचारधाराक सम्यक सम्पोषणपर निर्भर रहल अछि। यूनानी साहित्यकार होमरक इलियड आ ओडेसी, कार्ल्स मार्क्सक दास कैपिटलसँ लऽ कऽ मैक्सिम गोर्की मदर आ माओत्से तुंगक आनकन्ट्राडिक्सन सन सारगर्भित विदेशी पोथी समन्वयवादक स्थापनाक लेल क्रांतिक द्योतक थिक। लियो टाल्सटाय आ लेनिन एहि दर्शनमे सूरमाक काज केलनि। आर्यावर्त्तक इतिहास सेहोएहिसँ अक्षोप नहि । रामचरित मानसमे रामराज्यक परिकल्पना आ सवरीक सिनेह समन्वयवादक द्योतक थिक। मात्र चौपाइक कारणे ई ग्रन्थ जनप्रिय नहि भेल वरेण्य एहि मे बहुत रास समन्वयवादी तत्व निहित अछि।
श्री मद्भागवत गीतामे कृष्णक उपदेश निश्चित रूपसँ शांतिक लेल युद्धक प्रतीक मुदा ऐ क्रांतिमे सेहो समाजमे समन्वयवादक आश लगाओल गेल। सामान्यतः लोक हाथ मे “लाल धूजा” कें समन्वयवाद कहैत छथि . राजनीतिमे एकर जे अर्थ हुअए मुदा साहित्यमे समन्यवाद होइछ समाजक अंतिम लोकधरिक आपकतापूर्ण चित्रण . “देसिल वयना सभ जन मिट्ठा”क कतेको गुणगान कएल जाए मुदा हमर साहित्यक इतिहास श्रंृगार आ यशोगानसँ बहुत हदधरि आगू नहि बढ़ि रहल छल। एहि उपक्रममे ललित आ धूमकेतु सन आधुनिक रचनाकार अवश्य समन्वयवादक आश लऽ कऽ एलाह। एहिसँ पूर्वक साहित्य अपन समाजमे केतबो गुणगानक ध्वजकेँ जाज्वल्यमान करए मुदा आन क्षेत्रक लेल मात्र मधुर भाषा बनि कऽ रहि गेल जाइमे पग-पग पोखरि माछ मखानसँ बेसी आश राखब अनर्गल छल। कर्मवादिताक आधारपर जौं निर्णय कएल जाए तँ साहित्यसँ साम्यवादक घृतगंध मात्र किछुए साहित्यकारक लेखनीसँ झहरैत भेटत, जाहिमे प्रमुख छथि बैद्यनाथ मिश्र यात्री, चतुरानन मिश्र , जगदीश प्रसाद मण्डल ,ललित, धूमकेतु,सुधांशु शेखर चौधरी,विद्यानाथ झा विदित, गजेन्द्र ठाकुर, कुमार पवन आ श्रीमती कमला चौधरी। वास्तवमे मैथिली उपन्यास विधामे साम्यवादक संस्थापक वैद्यनाथ मिश्र यात्री (कृति- पारो) आ चतुरानन मिश्र (कृति- कला) केँ मानल जा सकैछ।
ई मात्र संयोग मानल जाए जे दुनू साहित्यकारक कृति एकहि वर्ष सन 1947 ई.मे प्रकाशित भेल। ओही कालमे यात्री परिपक्व रचनाकार भऽ गेल छलाह, मुदा चतुरानन एकटा काँच क्रांतिवादी युवक रहथि। एकटा मजदूर आन्दोलनक नेतृत्व केनिहार 21 वर्षक नवयुवकक लेखनीसँ निकसल ई मात्र उपन्यास नहि समाजक लेल लिखल क्रांतिगीत थिक,जकरा पूर्ण वैचारिक मान्यता किएक नहि भेटल ई विचारनीय प्रश्न थिक। कलाक अतिरिक्त चतुरानन मिश्रीजी विकास, संझा माए, जागरण आदि लघु उपन्यास लिखने छथि मुदा सामान्य पाठकक लेल साहित्यकार नहि मानल जाइत छथि। कलाक पहिलुक प्रकाशन 1948 ई.मे भेल। मैथिली अकादमी सन् 1948 ई.मे ऐ पोथीकेँ फेरसँ प्रकाशन केलक। हरिमोहन झा आ यात्री सन चर्चित लोकनि एकर सारगर्भितासँ हर्षित भेलाह, मुदा पाग प्रधान मिथिलामे “कला”केँ कहए जे वाहवाहीक मुरेठा सेहो नहि भेटल। समालोचक लोकनि केतौ-केतौ मर्यादावश उल्लेख तँ करैत छथि मुदा “क्रांतिवीर” कहबामे संकोच होइत छन्हि किएक तँ ई साम्यवादी राजनीतिज्ञ कालसँ पूर्वहिं लिखब छोड़ि देलक।
आब प्रश्न उठैत अछि जे चतुराननकेँ साहित्यक महिमा मंडनक पिरही नहि देल जाए किएक तँ परिपक्व भेलाह वाद लिखनाइ छोड़ि देलक आ संग-संग दोहरी चरित्र जे जगदीश प्रसाद मण्डलकेँ सेहो महत्व नहि देल जाए किएक तँ ओ परिपक्व भेलाक बाद लिखलक आ लिख रहल अछि की ई उचित? एकरा असतो माँ सद्गमय क मूल अर्थात मनसा, वाचा, कर्मणा रूपी समन्वयवादपर आघात मानल जाए। ई दुनू रचनाकार केकरो यशोगान आ केकरो तगेदासँ नहि लिखलक। समन्वयवादसँ हमरा सबहक ऑत किएक डोलि जाइत अछि? एकर अर्थ स्पष्ट जे भाषाक प्रचारक आ संरक्षक लोकनिमे पारदर्शिताक संग-संग प्रतिभा सेहो नै छन्हि आ आत्मग्लानि (complexion) सँ ग्रसित छथि।
मात्र 54 पृष्ठक एकटा छोट-छीन जेकरा अतिवादी समालोचकक दृष्टिमे झुझुआन सेहो कहल जा सकैछ, औपन्यासिक कृति “कला” मिथिलाक निरापद समाजक नारी दोहनक वृत्ति चित्र थिक। मैथिलीमे रचनाक संख्याबल रचनाकारक स्तरक मूलाधार होइछ। “कला” पढ़लाक बाद ई अक्षरश: प्रमाणित भऽ गेल। जाहि समाजमे एखनो विधवा बिआह अमान्य मानल जाइछ, ओहि समाजक एकटा नारीमे चेतना आ सकारात्मक परिणामक संग उद्देश्य प्राप्तिक आश लगभग 66 वर्ष पूर्व राखब एकटा क्रांतिवादी विचारधाराक कारण मानल जा सकैछ। महेश बाबू गरीब मुदा ऊँच-नीच बुझनिहार व्यक्ति छथि। ओ अपन 10 वर्षक ज्येष्ठ कन्या “कला”क बिआह नै करए चाहैत छथि, मुदा पारिवारिक स्थिति आ समाजक दशो-दिशा महेश बाबूक मुख बन्न कऽ देलकनि 50 बीघा जमीनक मालिक बूढ़ वर मनेजर भाइसँ कलाक बिआह करए पड़लनि।
अपराधवोध नीक लोककेँ अवश्य होइछ। परिस्थितिवश आर्थिक दृष्टिसँ नि:शक्त महेन्द्र बाबू बेटीक बिआहसँ पूर्वहि अपन कनियाँक नाओंसँ समाजक आ परिस्थितिक देल पीड़ाकेँ पतिया स्वरूप लिख निपत्ता भऽ गेलाह। एकटा बूढ़ वरक कनियाँ जे क्षणहिं पर्व कॉच कन्या छलीह आब वयससँ नै मुदा जीवन शैलीमे परिवर्तनसँ व्यस्थित आ बेसाहु भऽ गेलीह। एक वर्षक दाम्पत्य जीवन व्यतीत केलाक बाद अज्ञात यौवना बालिका चित्राक “बूढ़ वर” कविताक नायिका जकाँ विावा भऽ गेलीह। मुदा “जो रे राक्षस, जो रे पुरुष जाति। तोरे मारलि हमरा सभ मरि रहल छी…।” केर उद्घोष नै केलीह। माए-बाप आ समाजक देल अवांक्षित वैधव्यकेँ मूक स्वीकारोक्ति कलाक परिपक्वताक नै परिस्थितिक िनष्कर्ष भऽ गेल। “कला” वैधव्यक कष्टसँ कानलि तँ रहथि मुदा छोट वयसक कारणे जीवनमे एतेक भारी विपत्तिक आगमन केर पूर्ण भान नै भेल छलनि। “अज्ञात नव यौवना” (कोनो राजकमलक कथानायिका नै मिथिलाक गुणगान करए बड़ा छद्म ब्राह्मण जातिक कन्या) विधवा संकटा बनि गेली। क्षणिक चुहचुहीसँ भरल कलाकेँ देख सासु कहलखिन- “वौआसिन केर विधवाक शोभा नै संकटे थिक तँए हमर विचार जे कहबा लितहुँ?”
फेर गंगा कातमे कलाक मूड़न भेल। ई मिथिलाक तादात्म्य, मैथिल ब्राह्मणक शक्तिकेँ की मानल जाए? इहए कारण थिक जे सम्पूर्ण भारतमे धर्म सुधार आन्दोलन भेल, मुदा मिथिलामे नै। ओना ऐ तरहक प्रवृत्ति आन ठामक ब्राह्मणमे सेहो छन्हि, मुदा एतेक कट्टरता नै। अवलाक शोणितसँ जाितवादी हथियारकेँ पिजा कऽ कहिया धरि अपनाकेँ “सवर्ण” कहैत रहत, ई तँ अवर्णोक लेल ग्राह्य नै। जौं एतबे टामे “कला”क ललित कलाक इतिश्री भऽ गेल रहितए तँ विश्ेष गप्प नै छल। अवला िनर्वला कलाकेँ हुनक दिअर सुन्दर बाबू जे वयसमे कलाक पिताक समान छथि चरित्र हनन कऽ कुलक्षणा पतिता आ कलंकिता माताक रूप दऽ देलखिन। कला गर्भवती भऽ गेलीह। भरि दिनक गारि आ शापसँ कला असहज भऽ सासुकेँ जबाव देलखिन- “अपन कोखि केहन भेलनि जे एहन सुपुत्र जे जनमओलनि। शौख केहन भेलनि जे पचास वर्षक बूढ़ बेटा ले नअो वर्षक कनियाँ तकैत छलीह।”
सुन्दर बाबू जेे पहिने कलाक चरित्रहंता खलनायक छलाह आब मर्यादा पुरुषेत्तम बनि माइक आदेशपर कलाकेँ मूर्छित कऽ देलनि। जखन वियति अबैछ तँ सगरो दिश अन्हार जेम्हरे जीव जेबाक प्रयत्न करैछ तेम्हरे संकट। कला भाग कऽ बनारस चलि गेलीह। एकटा तथाकथित मैथिल भद्रमहिला सोमदाइ कलाकेँ षडयंत्रसँ गयिका बना कऽ बेचए चाहैत छलीह। एकटा ब्राह्मणी सहायतासँ कला चरित्र दोहणसँ बचि तँ गेलीह मुदा पीड़ा अग्राहण भऽ गेलनि। परिणाम भेल आत्महत्याक प्रयास, मुदा अभागलिकेँ मरनाइ सेहो कठिन होइछ। सात दिन अस्पतालमे रहलाक बाद जखन किछु सुधार भेलनि तँ डॉ. कलानंदसँ साक्षात्कार जीवनमे सुखद अनुभूति लऽ कऽ आएल। युवक डॉ. कलानंद आत्महत्याकेँ उचित नै मानैत छथि। ओ सुधारवादी ब्राह्मण छथि। विधवाकेँ बिआह कऽ लेबाक चाही। डॉ. कलानुदक तर्क कलाकेँ असहज लगलनि। ऐ समाजमे विधवाक नारकीय स्थितिसँ उद्वेलित कला “सती प्रथा”केँ उचित मानैत छथि। केहेन विकट परिस्थिति थिक जइठामक नारी अवला जीवनक अभिशापसँ बेसी चरित्र हननक डरसँ सती हएब उचित बुझैत छथि।
तथाकथित पुरुषप्रधान सबल वर्गक नारी दिन भरि खटैत रहए सभ दैनन्दिनीमे परिवारक सहयोगी मुदा यात्राकालमे अशुभ। आश्चर्य अछि समाजक अग्र आसनपर बैसल धर्म िनर्माता आ बेवस्थाक कथाकथित मनुवादी प्रवृति ओ दर्शन। जौं मनुवादकेँ हृदैसँ मानैत छथि तैयो एहेन दृष्टिकोण हएब उचित नै। मनु तँ एकर समर्थन कथमपि नै कएने हेता। जौं हुनको इहए दृष्टिकोण छलनि तँ एहेन व्यक्तिक लिखल स्मृति समाजपर कलंक मानल जाए। ऐ क्रममे सभसँ नीक लागल चतुरानन जीक समन्वयवादी विचारधाराक बेबाक विश्लेषण। डॉ. कलानन्द अन्तरजातीय आ अन्तरप्रान्तीय िबआहक समर्थक छथि कलानंदक ऐ दृष्टिकोणकेँ साम्यवादी विचारधाराक अनुशीलन हेतु चतुरानन जीक आत्म उद्वोधन मानल जाए।
उपन्यासक िनष्कर्ष सकारात्मक अछि। डॉ. “कलानंद” कलानंदसँ “कलाकान्त” अर्थात् कला दाइक पति भऽ गेलाह। दंतहीन मैनेजर भाइ जकाँ नै सुन्दबाबूसँ संस्कृत शिक्षा ग्रहण करैवाली “कला”क सुयोग्य पति- डाॅ. कलानंद। कलाक जिज्ञासा छलनि जे विधवा ट्रेनिंग कैम्प चलैत रहए। ओ पूर्ण भेलनि। डॉ. कलानंद आब औषधालय खोलि राजनीतिमे कूदए चाहैत छथि। औषधालयसँ जे आमदनी हेतनि ओइसँ परिवारक भरण-पोषण डॉ. साहेबक मूल उद्देश्य छन्हि। रचनाकार राजनीतिज्ञक लेल प्रश्न ठाढ़ कऽ देलनि जे राजनीतिमे रहैबला लोक समाज सेवाकेँ अपन उद्देश्य बनाबथु। राज्यक धनसँ परिवारक पोषण नै ई तँ “ऑनरेरी सर्विस” हेबाक चाही। कला सोलह बर्खक बाद अपन नैहर एलीह मुदा सभ किछु नष्ट भऽ गेल छलनि। ऐ उपन्यासमे महाजनवादी सूदिखोरी प्रथाक विरोध सेहो कएल गेल अछि।
निष्कर्षत: ई उपन्यास विन्याक दृष्टिसँ किछु विशेष नै किएक तँ मैथिलीमे कथोपकथनसँ बेसी विन्यासक महत होइत छैक। चोटगर आ रसगर गप्प ऐमे नै छैक तँए ई समालोचक लोकनिकेँ नै पचलनि। जौं चतुरानन जीक ऐ तरहक दृष्टिकोण जे अखन धरि मात्र कल्पना थिक, समाज द्वारा अर्न्तमनसँ स्वीकार कऽ लेल जाए तँ चतुरानन जीक लेखनीक सार्थकता परिलक्षित होएत। ऐ मौलिक कृतिक प्रासंगिकता समाजमे अखनो अछि। जे वर्ग स्वयंकेँ मस्तिष्क कहैत छथि ओइमे अखन धरि सम्यक साम्यवादी तत्वक विकासमे लागल धून अखन धरि व्याप्त अछि। ओना स्थिति बदलि रहलै आ बाल-बिआह लगभग मिथिलामे न्यून भऽ गेलैक मुदा काटर प्रथा आ वैधव्य जीवनक दारूणिक बेथाकेँ अखनो सबल समाजमे मान्यता छैक। ब्राह्मण शिक्षा स्पोतक मूलांकुर रहल छथि तँए राजतंत्रीय बेवस्थामे पएर पुजेबाक हिनका अधिकार छलनि मुदा कि ऐ वर्गक विद्धत लोकनि ओइ अधिकारक प्रयोग समाजमे समन्वयवादी बेवस्थाक स्थापनाक लेल कऽ सकलनि?
द्रविड़ समाजमे तँ बहुत हद धरि जाति-पातिक दृष्टिकोणमे कमी आएल मुदा आर्य समूह विशेष कऽ कऽ मिथिलामे अखन धरि आनक प्रतिमाकेँ प्रोत्साहित करब वा सांस्कृतिक एवं सामाजिक विकासमे भूमिका देबएमे सबल वर्गकेँ अखनो कचोट होइत छन्हि। जाधरि ऐ मानसिकतासँ मुक्ति नै भेटत चतुराननजी सन समन्वयवादी विचारधारा पुरान रहितो नूतन मानल जाएत। विश्वास अछि जे स्वयंकेँ मूल्यांकन कएल जाए जे हम सभ कतए जा रहल छी इहए “कला”क कलात्मता ओ तादात्म्यक सार्थक श्रद्धांजलि हएत।