यथार्थकें चरितार्थ करैत मनीष झा केर इ सुन्दर सन कविता

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    देखथुन्ह गिरहथ बड्ड भए गेलै
    आब कोना चुप रहल जेतै
    बोइनक उचित हिसाब लगबथुन्ह
    आब नहि भुखले सहल जेतै

    मुन्नियाँ जड़ सँ तड़पि रहल छै
    बौआ भुखले कानि रहल
    अप्पने साड़ी तन नहि झाँपै
    एकटा पेट मे फानि रहल

    ओ मुनसा जे ओहि ठां गेलइ
    सुतिये रहलै बिसरि क’ गाम
    भए गेल चूल्हि बरफ के सिल्ला
    फाटल नुआ मे सब के ध्यान

    मालिक ! इंदिरा आवास जे एलै
    आधा लए लेलकै मुखिये दाम
    दस हजार के पौस खरीदल
    आ जे बचलै से सुइदक दाम

    देखथुन्ह ! दसे टा नमरी मे
    की सब करबै हम , गैए दाए !
    चाउर के दर पुछथुन्ह बनियां के
    नूने – तेल मे सबटा जाए

    बड़का-छोटका सभक नेना
    इस्कुल भोरे जाए छै
    मुदा हमर कोंखिक जनमल सब
    प्राण रपटि रहि जाए छै

    मोन त’ होइए माहुर – बिख खा
    प्राण अपन हम तेजि दैतियै
    मुदा इ राछछ सब के खातिर
    काहि काटि हम रहि गेलियै

    एक्के क्षण लेल मालिक सोचथुन्ह
    कोना क’ हम पोसबै एकरा
    आ जँ ई नहि किरपा करथिन त’
    ई अबला जा कहतै ककरा ?

    …. मनीष

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